विविध >> उसका बचपन उसका बचपनकृष्ण बलदेव वैद
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चारपाई की गहराई में दादी औंधे मुंह पड़ी हुई है, जैसे कोई बच्चा रोते रोते सो या मर गया हो। ड्योढ़ी इस मकान का मुँह है, जो कभी खुलता है तो कभी बंद हो जाता है।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
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चारपाई की गहराई में दादी औंधे मुंह पड़ी हुई है, जैसे कोई बच्चा रोते
रोते सो या मर गया हो। ड्योढ़ी इस मकान का मुँह है, जो कभी खुलता है तो
कभी बंद हो जाता है।
ड्योढ़ी की दीवारें जगह-जगह से उधड़ी हुई हैं। कच्चे पलस्तर के मोटे-मोटे छिलके ऐसे दिखाई देते हैं जैसे किसी बीमार के ओठों पर जमी हुई पपड़ियां हो। छत की शहतीरें धुएँ के कारण काली हो गई हैं और उनसे लटकते हुए काले जाले यों झूलते रहते हैं मानों इस ड्योढ़ी के गहने हों।
ड्योढ़ी का दरवाजा गली में खुलता है। दादी आने जाने वालों की पदचाप सुनती रहती है और अनुमान लगाती रहती है कि कौन किधर जा रहा है। दादी के कान बहुत पतले हैं, लेकिन मां के शायद उससे भी अधिक पतले हैं। वह सब कामकाज छोड़कर धम-धम करती बाहर आ जाती है और दादी को पास बैठी स्त्री या पुरुष। की पीठ पर हाथ फेरती और आशीर्वाद देते देखकर दांत पीसती हुई लौट जाती है। तब दादी की आवाज धीमी हो जाती है।
अगर ऐसे किसी अवसर पर बीरू कहीं मां के हत्थे चढ़ जाए, तो वह पिट जाता है और आँखें मलता हुआ गली में जा खड़ा होता है।
ड्योढ़ी की दीवारें जगह-जगह से उधड़ी हुई हैं। कच्चे पलस्तर के मोटे-मोटे छिलके ऐसे दिखाई देते हैं जैसे किसी बीमार के ओठों पर जमी हुई पपड़ियां हो। छत की शहतीरें धुएँ के कारण काली हो गई हैं और उनसे लटकते हुए काले जाले यों झूलते रहते हैं मानों इस ड्योढ़ी के गहने हों।
ड्योढ़ी का दरवाजा गली में खुलता है। दादी आने जाने वालों की पदचाप सुनती रहती है और अनुमान लगाती रहती है कि कौन किधर जा रहा है। दादी के कान बहुत पतले हैं, लेकिन मां के शायद उससे भी अधिक पतले हैं। वह सब कामकाज छोड़कर धम-धम करती बाहर आ जाती है और दादी को पास बैठी स्त्री या पुरुष। की पीठ पर हाथ फेरती और आशीर्वाद देते देखकर दांत पीसती हुई लौट जाती है। तब दादी की आवाज धीमी हो जाती है।
अगर ऐसे किसी अवसर पर बीरू कहीं मां के हत्थे चढ़ जाए, तो वह पिट जाता है और आँखें मलता हुआ गली में जा खड़ा होता है।
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